Thursday, July 24, 2025

जागल रहू सतत श्रीमान

बीज   ज्ञान   केर   छी  अज्ञान,
तखने  निकलय  अछि विज्ञान,
मान-अपमानक बोध अभिमान, 
बचल   रहय   नित  स्वाभिमान, 
मित्र - शत्रु   केर  हो   पहचान।
एकदम    आवश्यक    श्रीमान।।

सभहक  अप्पन  घर -आँगन, 
खुशी   सँ   जीबू  या   बे-मन,
जौं शुभचिंतक  लागय दुश्मन, 
जिनगीभरि  भोगब  नुकसान।
कहिया  बूझब  यौ  श्रीमान??

कियो  होश  मे  कियो बेहोश,
कम-बेसी सब अछि मदहोश, 
बनल  रहय  जीबय  के जोश,
सतत   सोच   सँ  रहू  जवान। 
 जिनगी  सफल रहत श्रीमान।।

उलटि   गेल  घर   के  परिवेश, 
गाम   छोड़ि   आयल   परदेश, 
बसल हृदय मे  मिथिला - देश,
पेटक   खातिर   ई   बलिदान। 
भोगल  सत्य   कहल श्रीमान।।

कियै    करी  अप्पन   परचार, 
नीक-अधलाहक  करू विचार,
सुमन  भेटत  निश्चित  उपचार, 
जीवन   संभव   बनय   महान।
जागल   रहू   सतत   श्रीमान।।

जिनगी सुमन अकेला

दुनिया! मति-दुर्मति केर खेला। 
सगरो  नीक - मति  सँ     मंगल,  दुर्मति   सिर्फ  झमेला।।
दुनिया! मति-दुर्मति -----

परम्परा  सँ  जीबय  खातिर, निर्मित  नियम  चलय   के।
मुदा  एखन  कोना  चिन्हब  के, कोशिश करत छलय के।
डेग - डेग  पर  नीति - नियम  केर, देखी  नित्य अवहेला।।
दुनिया! मति-दुर्मति -----

झगड़ा - झंझट  जे  समाज  मे, नियम - भंग  के कारण।
नीक-बेजाय बस कर्म हमर छी, किछुओ नहि अकारण।
नेक - सोच  केर  आदर  करबय, लागत  जग  छी मेला।।
दुनिया! मति-दुर्मति -----

नवतुरिया  केँ  पैघ  लोक  केर,  अनुभव  तीत  लगैया।
भौतिक - सुख  केर  पागलपन टा, हुनका मीठ लगैया।
कहुना  अप्पन  चालि  सुधारू, जिनगी सुमन अकेला।।
दुनिया! मति-दुर्मति -----

नीक कामना पहिने लोकक

मैया! कतेक दूर चलि गेलहुँ।?
ओतेक स्नेह सँ कियो ने पूछय, सुमन अहाँ की खेलहुँ??
मैया! कतेक -----

छाया  ममता  केर  आँचर  के, याद  करैत  मन  पागल। 
देर  राति  जहिया  घर  एलहुँ,  अहाँ केँ देखलहुँ जागल।
धिया-पुता केर नीकक खातिर, सबकिछु अहाँ लुटेलहुँ।।
मैया! कतेक -----

प्रातःकालक  वो  स्वर - लहरी, लागय  भेल अलोपित।
अक्सर  स्नेह  एखन  जे  भेटय, सब  लागय आरोपित। 
अमिट  छाँह  जे  सहज - स्नेह  के, भगवन् दूर करेलहुँ।।
माता! कतेक -----

नीक  कामना  पहिने  लोकक, तकर बाद अपना लय।
ओहने  भाव हृदय मे जागय, जीयब ओहि सपना लय।
दूरो  छी पर अहींक चरण मे, निशि-दिन ध्यान लगेलहुँ।।
मैया! कतेक -----

Wednesday, July 23, 2025

अपने सँ ताकय पड़त

भूख  लगल   आबय  पड़ल,  गाम  छोड़ि  परदेश।
अखन  गाम  बनलय  शहर, बदलि  गेल  परिवेश।।

आयोजन    कोनो    रहय,  या    कोनो   त्योहार।
मोह   छुटल  नहि   गाम   के,  जायब   बारम्बार। 

नवतुरिया   बेहोश   अछि,  या   शायद  डरपोक।
बुझनिहार  अग्रज  बहुत, छोड़ि  देलनि इहलोक।।

नवका  लोकक  बोल  मे, कनियो  कहाँ  लगाम?
गप्पो  किनका  सँ  करब, जखन जाय  छी गाम।।

राग - द्वेष   जे   आपसी,  कारण   बस  अज्ञान। 
ज्ञान  हमर  पहचान  छल, मेटा  रहल  वो ज्ञान।।

झगड़ा  सँ  झगड़ा  बढ़य,  प्रेम  बढ़य  के  मूल।
अपने  सँ  ताकय  पड़त, भेल  कतय  की भूल??

सिखा देत सबकिछु समय, शिक्षक बहुत सटीक।
सुख -सुविधा बाहर मुदा, गाम सुमन अछि नीक।।

हमरा घर के काते-कात

लोक  खुनय  जे  रोजे खदहा, हमरा घर के काते-कात 
सिर्फ  सुनाबय अप्पन दुखड़ा, हमरा घर के काते-कात 

राति-दिन जे  परनिन्दा  केँ, भजन बूझि केँ गाबि रहल
मनुख-रूप  मे भटकय गदहा, हमरा घर के काते-कात 

नीक  लोक  कम  सरिपहुँ भेटय, बेसी अधलाहे सँ भेंट
घर-घर देखि रहल छी झगड़ा, हमरा घर के काते-कात 

मैथिल - मिथिला  संस्कार के, बाजा बाहर बजबय छी
संस्कार  बूझय  सब  लदहा, हमरा  घर  के काते-कात

जे धरती छल सुमन ज्ञान के, बढ़लय ओहिठां अज्ञानी
सबटा  अज्ञानक  छी लफड़ा, हमरा घर के काते-कात 

तिल-तिल नूतन नीक बनय केर

भीतर जिनकर जतेक सियाह,
हुनकर जीवन ओतेक अथाह, 
परिजन सँ सहयोग परस्पर, जिनगी तखने सफल रहत। द्वेष-भाव सँ भरल जिन्दगी, कतऊ कात मे पड़ल रहत।।

अपना घर या आस - पास मे, मूल कलह के कारण की?
बहुत रास कारण भेटत पर, सोचू ओकर निवारण की?
अहं - भाव सँ जे कियो जीबथि, लोक-वेद सँ कटल रहत।
द्वेष-भाव सँ -----

जे कोदारि या बनल बसूला, बुझियौ आन्हर स्वारथ मे। 
खुरपी बनिकय जे नहि जीबथि, जिनगी कटत अकारथ मे।
डोर - विवेकक छोड़ि चलब जौं, डेग थाल मे गड़ल रहत।।
द्वेष-भाव सँ -----

गुण - अवगुण किनका भीतर नहि, अप्पन भूल सुधारू ने।
तिल - तिल नूतन नीक बनय केर, मन्तर सुमन उचारू ने।
नीक सोच सँ अगर चलब तँ, जिनगी सगरो उठल रहत।।
द्वेष-भाव सँ -----

Sunday, July 6, 2025

भगवानो इन्सान मे

करय पड़य छै बारी-बारी,
अप्पन जीबय केर तैयारी,
सबटा  काज  करू  पर  राखब, प्रेम आपसी ध्यान मे। 
जन्म  हमर  भेल  प्रेमक  कारण, नित  राखू संज्ञान मे।।

ई दुनिया अछि  प्रेमक  सागर, की ताकय छी बाहर मे।
जखन बाहरी दुनिया सँ भी, पैघ जगत अछि भीतर मे।
प्रेमक  महिमा  भरल  ग्रंथ  मे, आ  गीता  के  ज्ञान मे।।
जन्म हमर -----

घर - घर मे  जे पैसल झगड़ा, सुलझत प्रेमक बोली सँ।
भूल भेल किनको सँ घर मे, बुझियौ भेल हमजोली सँ। 
सुखी रहब जौं कलह सँ बेसी, राखब ध्यान निदान मे।।
जन्म हमर -----

प्रेम सँ एलहुँ, ईश-प्रेम लय, जग सँ बाहर हम जायब।
पुनर्जन्म केँ जौं मानय छी, पुनः सुमन जग मे आयब।
सगरो  सतत  प्रेम अछि पसरल, भगवानो इन्सान मे।।
जन्म हमर -----

हार कही या जीत?

सुख-दुख के अनुभव सुमन, सबके अप्पन मीत।
जिनगी  समझौता  सतत, हार  कही  या  जीत??

हार - जीत   नहि   तौलियो,  दुनु   के   सम्मान।
मान   हार  के  जे  करत,  वो   जीतत  श्रीमान।।

घर-घर  मे झगड़ा - कलह, सगरो पसरल शोक।
खोता  अपन उजाड़िकय, रहल खुशी के लोक।।

निर्बुद्धिया   धिया - पुता,  परचट  जखने  भेल।
वो  घर  मे  तखने  शुरू, उठा - पटक  के खेल।।

अपना बच्चा पर  रहय, सभहक  किछु अरमान।
मातु-पिता वो शत्रु सम, जे सिखबथि अभिमान।।

हरदम  घर  मे  रोकियौ, बिना  वजह  के  चीख।
सामाजिक व्यवहार  लय,  बहुत  जरूरी  सीख।।

नीक   बनत  परिवार  तेँ,  निक्के  रहत  समाज।
तखने सभहक एक सँग, बाजत  सुख के साज।।

बुढ़िया घर के दाई मीता

बाहर   मे   सब   भाई   मीता 
घर   मे   रोज   लड़ाई   मीता

टूटि  रहल   मर्यादा  प्रतिदिन 
ताकू   उचित    दवाई   मीता

घर - घर  बूढ़  उपेक्षित भेटत 
बुढ़िया   घर   के   दाई  मीता 

दुनियादारी    के    रस्ता   मे
कदम - कदम पर खाई मीता 

सामाजिक सद्भाव अलोपित 
संभव   कोना  भलाई  मीता 

हरदम  दोसर  के  चरित्र  पर 
छींटय   छी  रोशनाई   मीता 

अप्पन  आदत  रोज सुधारू 
बाँटत  सुमन  मिठाई  मीता 

जीयब सुख सँ मुश्किल

वो पढ़ल-लिखल जाहिल, जौं पैसल हृदय जलन।
जीयब सुख सँ मुश्किल, , जौं पैसल हृदय जलन।।

जिनका नहि आगां सूझय, नहि अप्पन सुख-दुख बूझय।
रूसल - झगड़ालू  चेहरा,  बिन  बातक  सब  केँ  लूझय।
मुश्किल बैसब महफिल, , जौं पैसल हृदय जलन।।
जीयब सुख सँ -----

अछि ज्ञानक खाली - ढाकी, पर मरचाय  सन  बेबाकी।
स्वारथ  मे चरण पखारय, निकलत एक दिन चालाकी।
वो बनत कोना काबिल, , जौं पैसल हृदय जलन??
जीयब सुख सँ -----

पहिने बनियो परिवारक, अहाँ तखने बनब समाजक।
जे लोक-वेद  सँ  सीखय, संभव  वो बनथि प्रशासक।
वो सुमन सभक कातिल, , जौं पैसल हृदय जलन।।
जीयब सुख सँ -----

Tuesday, July 1, 2025

ताक-झाँक छोड़ू दोसर के

सुगना! खोता अपन सम्हारी। 
ताक - झाँक  छोड़ू  दोसर  के,  आदत  अपन  सुधारी।।
सुगना! खोता -----

जे सामाजिक नियम बनल अछि, पालन बहुत जरूरी।
रहबय  कत्तऊ  पर  समाज सँग, जीयब अछि मजबूरी। 
समाधान छै सब उलझन केर, मिलजुलि बैसि विचारी।।
सुगना! खोता -----

नेक  सोच  सँ  डेग  बढ़ाऽ कय, बिगड़ल  काज बनाबू।
जौं  पोषय  छी  द्वेष  हृदय  मे, किस्मत  अपन  जराबू।
सिर्फ विचारक संगम जीवन, सुख-दुख ओकर उधारी।।
सुगना! खोता -----

ई  दुनिया  भगवानक  नगरी, बनिकय  निर्गुण  ताकू।
दोसर  के  दुर्गुण   सँ   पहिने,  अप्पन   दुर्गुण   ताकू।
सुमन चलू नित अहि रस्ता पर, नहि बुझियौ लाचारी।।
सुगना! खोता -----

जिनगी छी पाठशाला

जतबे  भेटल  यै  शिक्षा, अपना केँ नित सम्हारू
दूषित  कहीं  जौं  इच्छा,अपना  केँ नित सम्हारू 

असगर जीयब  कठिन अछि, परिवार के जरूरी
जीवन  सतत  परीक्षा, अपना  केँ  नित  सम्हारू 

सम्बन्ध  सब  बढ़ाबथि, किछु  मंथरा  के कारण 
सद्भाव   केर  उपेक्षा,  अपना  केँ  नित  सम्हारू 

जिनगी सभक छै औसत, चौबीस हजार दिन के
पल-पल जगय शुभेच्छा, अपना केँ नित सम्हारू 

सुख - दुख सँ रोज सीखू, जिनगी छी पाठशाला 
एतबे  सुमन - अपेक्षा, अपना  केँ  नित  सम्हारू