हुनकर जीवन ओतेक अथाह,
परिजन सँ सहयोग परस्पर, जिनगी तखने सफल रहत। द्वेष-भाव सँ भरल जिन्दगी, कतऊ कात मे पड़ल रहत।।
अपना घर या आस - पास मे, मूल कलह के कारण की?
बहुत रास कारण भेटत पर, सोचू ओकर निवारण की?
अहं - भाव सँ जे कियो जीबथि, लोक-वेद सँ कटल रहत।
द्वेष-भाव सँ -----
जे कोदारि या बनल बसूला, बुझियौ आन्हर स्वारथ मे।
खुरपी बनिकय जे नहि जीबथि, जिनगी कटत अकारथ मे।
डोर - विवेकक छोड़ि चलब जौं, डेग थाल मे गड़ल रहत।।
द्वेष-भाव सँ -----
गुण - अवगुण किनका भीतर नहि, अप्पन भूल सुधारू ने।
तिल - तिल नूतन नीक बनय केर, मन्तर सुमन उचारू ने।
नीक सोच सँ अगर चलब तँ, जिनगी सगरो उठल रहत।।
द्वेष-भाव सँ -----
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