लोक खुनय जे रोजे खदहा, हमरा घर के काते-कात
सिर्फ सुनाबय अप्पन दुखड़ा, हमरा घर के काते-कात
राति-दिन जे परनिन्दा केँ, भजन बूझि केँ गाबि रहल
मनुख-रूप मे भटकय गदहा, हमरा घर के काते-कात
नीक लोक कम सरिपहुँ भेटय, बेसी अधलाहे सँ भेंट
घर-घर देखि रहल छी झगड़ा, हमरा घर के काते-कात
मैथिल - मिथिला संस्कार के, बाजा बाहर बजबय छी
संस्कार बूझय सब लदहा, हमरा घर के काते-कात
जे धरती छल सुमन ज्ञान के, बढ़लय ओहिठां अज्ञानी
सबटा अज्ञानक छी लफड़ा, हमरा घर के काते-कात
No comments:
Post a Comment