सभहक सोझाँ प्रश्न अछि, की अप्पन पहचान?
ताकि रहल छी आयधरि, भेटल कहाँ निदान।।
ककरा सँ हम की कहू, सब अपने छथि मस्त।
हाल पुछब झट सँ कहत, हम दुख सँ छी पस्त।।
स्वारथ सभहक देखियो, लागय छथि बेहोश।
फुसिये मुखिया छी बनल, बाते टा मे जोश।।
मुश्किल सँ भेटत कतहु, मैथिल सनक विवाह।
दान सँग मिथिलाङ्ग मे, बहुतो लोक तबाह।।
बरियाती केँ नीक नहि, लागय माछक झोर।
साँझ शुरू भोजन करत, उठता ताबत भोर।।
रसगुल्ला, गुल्ला बनाऽ, खाओत रस निचोड़ि।
खाय सँ बेसी ऐंठ कऽ, देत पात मे छोड़ि।।
मैथिलजन सज्जन बहुत, लोक बहुत विद्वान।
निज-भाषा, निज-लोक पर, दया करू श्रीमान।।
चोरि, छिनरपन छोड़िकय, करू अहाँ सब काज।
मैथिलजन तखने बचब, बाँचत सकल समाज।।
जाति-पाति सब छोड़िकय, बनू एक परिवार।
मिथला के उत्थान हित, करियो सतत विचार।।
अपन लोक तखने जुटत, बाजब मिठका बोल।
टुटल सुमन जौं गाछ सँ, तखन बिकत बेमोल।।
ताकि रहल छी आयधरि, भेटल कहाँ निदान।।
ककरा सँ हम की कहू, सब अपने छथि मस्त।
हाल पुछब झट सँ कहत, हम दुख सँ छी पस्त।।
स्वारथ सभहक देखियो, लागय छथि बेहोश।
फुसिये मुखिया छी बनल, बाते टा मे जोश।।
मुश्किल सँ भेटत कतहु, मैथिल सनक विवाह।
दान सँग मिथिलाङ्ग मे, बहुतो लोक तबाह।।
बरियाती केँ नीक नहि, लागय माछक झोर।
साँझ शुरू भोजन करत, उठता ताबत भोर।।
रसगुल्ला, गुल्ला बनाऽ, खाओत रस निचोड़ि।
खाय सँ बेसी ऐंठ कऽ, देत पात मे छोड़ि।।
मैथिलजन सज्जन बहुत, लोक बहुत विद्वान।
निज-भाषा, निज-लोक पर, दया करू श्रीमान।।
चोरि, छिनरपन छोड़िकय, करू अहाँ सब काज।
मैथिलजन तखने बचब, बाँचत सकल समाज।।
जाति-पाति सब छोड़िकय, बनू एक परिवार।
मिथला के उत्थान हित, करियो सतत विचार।।
अपन लोक तखने जुटत, बाजब मिठका बोल।
टुटल सुमन जौं गाछ सँ, तखन बिकत बेमोल।।
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